कविता :"पूछताछ परिवर्तन: क्या मैं सच में बदल गयी हूँ?"

"स्वयं का कायापलट: बदले हुए व्यक्ति का अनावरण"

रचना श्रीवास्तव

5/20/20231 min read

कितना बदल गई हूँ मैं, क्या सच में बदल गयी हूँ मैं...?

अपना ही अक्स अब, पराया सा लगता है

सच में कितना बदल गयी, या यूँ कहूँ कि संभल गई हूँ मैं...!

अब मासूमियत पे मेरी, हावी नही होती चालाकियाँ

उनके बुने हुए जालों से, बिना उलझे निकल गई हूँ मैं....!

नादानियों पर ओढ़ ली है, मैंने संज़ीदगी की चादर

इन समझदारों की बस्ती में, कितना ढल गई हूँ मैं... !

आग से तो बचना आता था, किसी आग से कभी जली नही

हैरान हूँ अपनी शीतल छाया, से ही कैसे जल गई हूँ मैं....!

हमकदम रहते हैं मुझसे, कुछ खफ़ा खफ़ा से

कि उनके ही रास्तों पे, आख़िर कैसे चल गई हूँ मैं....!

एक नम मासूम सा दिल, झाँकता अभी भी अचरज से

दूसरों के आँसू पोंछने को, खुद को कितना छल गई हूँ मैं....!

कितना बदल गई हूँ मैं, क्या सच में बदल गयी हूँ मैं...?