कविता : गरमी के रंग....

धरा की आग: सूर्य के संघर्ष की कहानी

रचना श्रीवास्तव

5/20/20231 min read

सूरज की भट्टी जले सूखे नदिया ताल।

मनमर्ज़ी अब धूप चले मौसम है बेहाल।।

गरमी का चाबुक चले मिले कहीं ना नीर।

पोखर ताल जले सभी खग मृग हुये अधीर।।

माघ पूस ना झाँकता हठ दिखलाये जेठ।

छांव कोठरी जा छुपी देख भानु की ऐंठ।।

तरुवर मुरझाय खड़े झरते सारे पात।

लू धूप के संग करे देखो दो दो हाथ।।

धरा तपे बंजर हुई झुलसे बगिया बाग़ ।

रुखी सूखी है नदी नभ से बरसे आग ।।

अंगारे सा दिन हुआ उमस जगाये रात।

पंख पसारे नींद उड़ी स्वेद भिगोये गात ।।

सूरज आँख दिखा रहा सुने नहीं दरकार।

अंतस लावा दह रहा बाहर हाहाकार।।