कविता : प्रेम और दर्द ….

प्रेम और दर्द: एक संगीत अनवरत विभाजन"

रचना श्रीवास्तव

5/27/20231 min read

जहाँ प्रेम वहाँ दर्द हँसता है

जहाँ दर्द वहाँ प्रेम बसता है!

दर्द पुराने जब जब रिसते हैं

कोई गीत गुनगुनाते हँसते हैं

बीते पल के वो सब साथी हैं

स्मृति में छुपके जा बसते हैं

ग़म का तरकश जब कसता है

मन बेचारा नाहक फँसता है !

जहाँ प्रेम वहाँ दर्द हँसता है

जहाँ दर्द वहाँ प्रेम बसता है!

कर्म ही जिनका धर्म रहा है

जीवन के वो हमप्याले हैं

मन न कुछ लेकर आता है

सब छोड़ बंजारा जाता है

पूरी न होती मन की तृषा है

सुख बरसे दुःख हँसता है!

जहाँ प्रेम वहाँ दर्द हँसता है

जहाँ दर्द वहाँ प्रेम बसता है!

माया सदा ठगती रहती है

चुपके से वो ये भी कहती है

साधु संत देव और ज्ञानी

पाकर मुझे बनते अज्ञानी

कर्मों का फंदा कसता है

काल फिर ख़ूब हँसता है!

जहाँ प्रेम वहाँ दर्द हँसता है

जहाँ दर्द वहाँ प्रेम बसता है!

कर्म नियति को रचता है

जीव स्वयं जीवन गढ़ता है

काम क्रोध मोह लोभ मद

इनमे ही है भरमाया जगत

सिर चढ़ बोले इनका नशा है

भीतर कस्तूरी स्वर्ण बसता है !

जहाँ प्रेम वहाँ दर्द हँसता है

जहाँ दर्द वहाँ प्रेम बसता है!