कविता : साफ़गोई

मुकाबला इंतेहां से

रचना श्रीवास्तव

7/15/20231 min read

साफ़गोई को मेरी

बदगुमान समझा गया

सर झुकाया कटने को

सलाम समझा गया।

ज़िन्दगी की दुआ दी

हमने क़ातिल को अपने

हर बार मेरी दुआ को

इंतक़ाम समझा गया।

बेचैन थे जो हम

सलामती को उनकी

उसे बस क़त्ल का

सरंजाम समझा गया।

उनकी ज़फाओं ने

आँसू ही दिए हमको

हमारी वफ़ाओं का वो

ईनाम समझा गया।

तक़ाज़ा ए शराफत था

इस लिए चुप रहे हम

नासमझ ज़माने में हमें

बेज़ुबान समझा गया।

गाफ़िल नहीं है हम

हरकतों से उनकी

मुख़ालफ़त को हमारी

एहतेराम समझा गया।

क्या कहें हम अब

इस बेदर्द ज़माने को

रक़ीब को जहाँ पे

हमनवाँ समझा गया।