कविता : समय की धारा
बहते समय की रवानगी
रचना श्रीवास्तव
7/15/20231 min read
बहते समय की तरह
बहते रहो जैसे बहे ये हवा !
झरते रहो जैसे बादल झरे
पैरों तले जैसे मुड़ता है दरिया !
सागर से मिलके भी कभी
ख़ाली नहीं होती जैसे नदिया !
बहते समय की तरह
बहते रहो जैसे बहे ये हवा !
खिलते रहो जैसे फूल खिलें
पाना के भी खोना है सब यहाँ !
साथ न हो कोई अकेले चलो
जैसे रस बरसाती घटायें सदा !
बहते समय की तरह
बहते रहो जैसे बहे ये हवा !
चलो जैसे मौसम चले है
आना है जाना भी है हर दफ़ा !
चलो दूर क्षितिज तक चले
जैसे हँसके गगन और ये धरा !
बहते समय की तरह
बहते रहो जैसे बहे ये हवा !